शनिवार, 16 मई 2020

दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए! भाग-२

*दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए!*

"अश्वत्थामा ने ऐसे मंत्र का जाप किया जिससे मैं युद्ध की समाप्ति तक जीवित रह सकता था।" 

अनुराग भारद्वाज की व्यंग्यात्मक कहानी #भाग-२

मुझे याद आ गया कि दुर्योधन ने महाभारत में कौनसा अपने वचनों को निभाया था जो खुद को दुर्योधन कह रहा यह आदमी निभाता! फिर एकदम से मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी, ‘कहीं ये सच तो नहीं कह नहीं रहा?
कुछ क्षणों के लिए सम्पूर्ण महाभारत मेरे जेहन में तेज़ी से उभरी और मेरे कानों में ज़ोर-ज़ोर से ‘कृष्ण’, ‘अर्जुन’, ‘भीष्म’ ‘दुर्योधन’, ‘द्रोपदी’ जैसे शब्द गूंजने लगे। चारों तरफ सैनिकों के चिल्लाने की आवाज़ें, हाथियों की चिंघाड, घोड़ों की टापें, शंखों की गूंज सुनाई देने लगी, तीरों और भालों के टकराने की आवाज़ें जैसे मेरे कान के परदे फाड़ देंगी और फिर उसी तेज़ी से विलुप्त भी हो गयीं! जिस तरह एक तेज़ धमाके के बाद कान सुन्न हो जाते हैं वही हाल मेरा भी था।
घबराहट में मैंने अपना सर झटक दिया और न जाने कब मेरा हाथ सामने रखी बोतल पर गया औेर मैंने एक घूंट में सारा पानी खत्म कर डाला। अब सब कुछ शांत लग रहा था. इतना शांत और ख़ामोश कि जैसे कोई तूफान अभी-अभी किसी बस्ती से सबकुछ रौंदकर गुज़रा हो। न जाने कितनी बार मैंने ‘महाभारत’ पढ़ा है और न जाने कितनी ही बार अपने-आपको कभी कृष्ण, कभी कर्ण, कभी युधिष्ठिर, कभी अर्जुन जैसे हालात में पाया है। पर कभी भी मैंने अपने आप को दुर्योधन नहीं समझा और आज वही दुर्योधन मेरे सामने बैठा था।
‘क्या हुआ?’ उसकी आवाज़ मुझे कुरुक्षेत्र से खींचकर उस ढाबे पर ले आई। ‘अब भी कोई संशय है?’ उसने पूछा। ‘नहीं’ मैंने कहा। उसने मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और मेरे सर पर एक टपकी मारी। फिर धीरे से मुस्कुरा दिया। ‘डरो मत, तुम पांडव नहीं हो और फिर हमारे बीच इतनी सदियों का फासला है कि अब किसी भी प्रकार का बैर संभव नहीं है।’ मुझे ताज्जुब हुआ कि थोड़ी देर पहले मुझे एक ही मुक्के से ‘महाभारत’ काल में पहुंचाने वाला लंगड़ा आदमी, दुर्योधन होते ही सहज हो गया था।
घड़ी की तरफ देखा तो दिन के दो बज गए थे, मुझे विराटनगर पहुंचना था। मैंने अपना प्लान कैंसिल किया और एक झूठी कहानी बनाकर दफ्तर से एक दिन की छुटी ले ली। छुट्टी लेने के लिए हर काल में झूठी कहानी ही बनाई जाती है। अब मैं इत्मीनान से उससे बातें कर सकता था।
‘तुमने दफ्तर में झूठ क्यों बोला?’ उसने मासूम आंखों से मेरी तरफ देखा। अब तक मैं और भी सहज हो चुका था इसलिए मज़ाकिया लहजे में बोला, ‘हां, मुझे अपने बॉस को बोलना चाहिए था कि देखो साहब मेरी महाभारत के दुर्योधन से मुलाकात हो गयी है, मुझे उनसे बातें करनी हैं इसलिए मुझे आज की छुट्टी चाहिए और जो मेरा बॉस है वह तो एक युधिष्ठिर है जो मुझे ख़ुशी-ख़ुशी छुट्टी दे देता।’ हम दोनों हंसने लगे।
‘क्या द्वापर में कृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर ने झूठ नहीं बोला था?’ डर और लिहाज़ के मारे मैंने उसका नाम नहीं लिया, ‘तुम मुझे कलयुग में सच बोलने को कह रहे हो।’
मैं अब और समय गंवाना नहीं चाहता था. ‘मुझे भूख लगी है, भाई’ उसने कहा। ढाबे की तरफ मैंने नज़र घुमाई तो समझ गया बकरी के दूध की चाय और बिस्कुट के अलावा यहां कुछ नहीं मिलेगा। ‘चलो, कहीं और चलते हैं, यहां खाना नहीं मिलेगा।’ रास्ते में मैंने उससे पूछा कि तुम तो उन चंद लोगों में से नहीं हो जिन्हें अमरता का वरदान मिला है, तो फिर अब तक ज़िंदा कैसे हो?
‘समंतपंचक में भीम ने मेरी जांघें तोड़ दीं और मैं उठने के लायक नहीं रहा था। भीम, उस समय पूरे आवेश में था। उसका बस चलता तो मुझे उस दिन ही मार देता और युद्ध समाप्त हो जाता, पर युधिष्ठिर ने उसको ऐसा करने से रोक दिया और यही युधिष्ठिर की भूल थी। अश्वत्थामा और कृपाचार्य को जब मेरे घायल होने का समाचार मिला तो वे दोनों रात के अंधेरे में छुपते-छुपाते मुझ तक पहुंचे। मेरे ह्रदय में युद्ध की आग अभी तक बुझी नहीं थी। मैंने अश्वत्थामा को अगला सेनापति बना दिया। वह पहले से ही द्रोणाचार्य की अनीतिपूर्वक मृत्यु से आहत था। उसने पांडवों का एक ही रात में वध करके युद्ध समाप्त करने की प्रतिज्ञा ली और सेनापति बनाये जाने के उपकार से कृतज्ञ होकर कृपाचार्य के साथ मेरी जांघों का उपचार भी किया। 
मुझ में जीने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी पर वह मुझे युद्ध के परिणाम तक जीवित रखना चाहता था। अश्वत्थामा ने ऐसे मंत्र का जाप किया जिससे मैं युद्ध की समाप्ति तक जीवित रह सकता था। अश्वत्थामा ने उस रात कायरतापूर्वक द्रौपदी के सोते हुए पांच पुत्रों और समस्त पांचालों का वध कर दिया। धृष्टद्युम्न को मारकर उसने तो अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लिया पर कृष्ण इस बर्बरता से इतना आहत हुए कि एक तरह से समाप्त हुआ युद्ध फिर शुरू हो गया। 
अर्जुन और अश्वत्थामा के मध्य बड़ा ही भयंकर युद्ध हुआ। कृष्ण और पांडवों ने उसके मस्तक से मणि निकाल ली और वह निस्तेज हो गया। शापित अश्वत्थामा जंगलों में चला गया और जिस मंत्र से उसने मुझे युद्धांत तक जीवित रखा था, उसका प्रभाव खत्म नहीं हुआ, परिणामस्वरूप मैं भी जीवित रह गया।’ यह सुनकर मैं चकित हो गया।
थोड़ा आगे जाने पर एक कामचलाऊ-सा होटल मिला और मैंने गाड़ी रोक ली। मैंने कहा, ‘अब यहां राजसी भोजन तो नहीं मिलेगा। हां, पेट ज़रूर भर जाएगा।’ उसने मेरी तरफ देखा और मुस्कुरा दिया। भोजन करते-करते हम दोनों बातें कर रहे थे। मैंने उस काल से जुड़ी कई सारी बातें उससे पूछ डाली। उसने भी सभी बातों का विस्तार से उत्तर दिया।
‘क्या द्रौपदी बेहद सुंदर थी?’ मेरे इस प्रश्न ने उसको थोड़ा विचलित कर दिया और वह दूसरी तरफ देखने लग गया। ‘

क्रमशः...

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