शुक्रवार, 15 मई 2020

दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए! भाग-१

*दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए!*

मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मेरे सामने भीम से युद्ध करने वाला, द्रौपदी का अपमान करने वाला, संसार के सबसे महान युद्ध का सबसे बड़ा खलनायक दुर्योधन बैठा है।

अनुराग भारद्वाज की व्यंग्यात्मक कहानी# भाग-१

बैसाख और जेठ के महीनों में पश्चिमी भारत एक तरह से भट्ठी हो जाता है. सूरज इंसानों और जानवरों के जिस्म का पूरा पानी निचोड़ कर पी जाता है. बढ़ते शहरों की सीमाएं जंगलों लील गई हैं, और एक टुकड़ा छांव भी दिन के समय अगर कहीं सड़क के किनारे मिल जाए तो एक स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती है.

ऐसे ही किसी दिन विराटनगर जाते वक़्त मैंने एक ढाबे पर अपनी गाड़ी रोकी. गर्मी इतनी तेज़ थी कि अगर आंखों से चश्मा हटा लूं तो उनका पानी सदा के लिए ही सूख जाए. रहीम का दोहा ‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून...’ याद आ गया. वैसे तो आज के समय में किसी की आंखों में पानी बचा ही कहां है, पर फिर भी सूना तो कुछ हुआ नहीं है! मैंने चश्मा हटाया और आंखों पर गीला रुमाल रखकर दोहे को दुबारा याद कर लिया.
रुमाल हटाकर मैंने एक चाय का ऑर्डर दे दिया और पेड की छांव तले चारपाई पर पैर फैलाकर ज्यों ही लेटने को हुआ, मेरी नज़र एक निहायत ही आकर्षित व्यक्तित्व के आदमी पर पड़ी. वह ढाबे से थोड़ी दूर बैठा हुआ था. एक बार तो मैं उसको देखता ही रह गया. निहायत ही मज़बूत डील-डौल, ऊंची कदकाठी, तीखे नैननक्श, और मटमैले रंग की चमड़ी मुझे बार-बार उसे देखने को मज़बूर कर रही थी. ढाबे के मालिक से मैंने उस आदमी के बारे में पूछा तो उसने बताया, ‘भाई, ये आदमी तीन चार दिन पहले यहां आया है, लंगड़ा कर चलता है और कुछ पूछने पर सिर्फ इतना ही बोलता है - वो तो जांघ तोड़ दी उसने, वर्ना एक-एक को देख लेता.’

‘क्या, तुम दुर्योधन हो!’ मैं हंसा और कहा, ‘मैं भी भीम हूं.’ और फिर ज़ोर से हंसने लगा. उसने गुस्से में अपना पैर ज़मीन पर दे मारा. उसकी लात में इतना ज़ोर था कि आसपास की सारी धरती हिल गयी. मैं लगभग गिरते-गिरते बचा. मेरी ऊपर की सांस आसमान में और नीचे की सांस पाताल में धंस गई. मैं डर कर भागने के लिए उठा तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. हाथ क्या था, जैसे किसी ने लोहे के कुंडे से मेरी कलाई जकड़ ली हो. मेरी रीढ़ की हड्डी तक एक सिहरन दौड़ गयी और मैं एकदम अपने हाथ-पांव समेट कर बैठ गया. 
‘डरो मत, तुमसे कोई बैर नहीं है, यहीं बैठे रहो.’ बड़े अधिकार से उसने कहा. मैं बैठ तो गया पर मेरी हालत शेर के सामने मेमने जैसी थी. उसने फिर कहा ‘ अब भी कोई संशय है?’ अपनी जान छुड़ाने के लिए उसकी बात मान ली. कुछ समय के लिए हम दोनों के बीच ख़ामोशी रही और फिर काम का हवाला देकर उससे मैंने भीख मांगने की मुद्रा में जाने की आज्ञा मांगी तो उसने मना कर दिया. जाने किसका मुंह देखकर सुबह उठा था आज कि आफ़त गले पड गयी थी.

थोड़ी देर बाद जब मैँ सहज हुआ तो उसने कहा, ‘महाभारत पढ़ी है?’ मैंने जान छुड़ाने के लिए गर्दन जल्दी से हां की मुद्रा में हिला दी. कुछ देर चुप रहने के बाद उसने दूसरा प्रश्न किया. ‘किसकी ग़लती थी, मेरी या पांडवों की?’ उसके इस प्रश्न से मेरे मन में खयाल आया कि हो न हो यह कोई गुंडा बदमाश है जो अपने-आप को आज का ‘दुर्योधन’ मानता है. वैसे तो कोई भी ‘दुर्योधन’ से कम नहीं है: मेरा पड़ोसी जिसकी नज़र हरदम दूसरे की बीवी पर रहती है, या कॉलोनी में अपने मकान के सामने की 40 फ़ीट सड़क पर 10 फ़ीट कब्ज़ा जमाकर अपने मकान को आगे बढ़ाने वाले लोग, सभी आज के दुर्योधन ही तो हैं? पर, वह शख्स मुझे थोड़ा अलग लगा, उसकी आंखों में लंपटपना न था.
उसने एक ही सांस में अपने 100 भाइयों के नाम गिना डाले, और कुरुओं की वंशावली भी. फिर कई ऐसी बातों का वर्णन किया जो उस काल में रहने वाले व्यक्ति के लिए ही संभव था.

‘जवाब दो?’ उसकी दमदार आवाज़ ने मुझे पडोसी और मेरी कॉलोनी के खयाल से खींचकर उसके सामने ला पटका. अपने बच्चों और बीवी की सूरतें और, थोड़ी देर पहले उसकी लात की ताकत याद करके, मैंने झट से कह दिया, ‘पांडवों की गलती थी.’ उसको हंसी आ गयी. वह हंसे जा रहा था और मैं एक बार फिर रुआंसा हो गया. मेरी हालत देखकर उसे तरस आ गया और वह मुस्कुराकर बोला, ‘सच बताओ?’ फिर थोड़ा और मुस्कुराकर बोला , ‘कहा ना, कुछ नहीं होगा.’

मन तो किया कि सच कह दूं, पर फिर कुछ सोचकर चुप ही रहा. ‘गलती पांडवों की थी’ उसने पूरे विश्वास से कहा. ‘और अगर तुम भी मुझे पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य या कृष्ण की तरह अनुचित ठहराते तो अभी एक ही मुक्के से तुम्हें उस ‘काल’ में पंहुचा देता.’ मैंने अपनी अकल और पहली बार बड़बोलापन न दिखाने पर राहत की सांस ली. याद आ गया कि दुर्योधन ने कौन सा महाभारत में अपने वचनों को निभाया था जो खुद को दुर्योधन कह रहा यह आदमी निभाता. फिर एकदम से मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. ‘कहीं ये सच तो नहीं कह नहीं रहा?’ 
शेष कल...

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