शनिवार, 23 मई 2020

दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए...भाग-३

*दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए!*

"मेरे सारे योद्धा सिर्फ तन से मेरे साथ थे। मन और कर्म से नहीं और मैं उनके विश्वासघात के कारण हार गया।"

अनुराग भारद्वाज की व्यंग्यात्मक कहानी #भाग-३

‘क्या द्रौपदी बेहद सुंदर थी?’ मेरे इस प्रश्न ने उसको थोड़ा विचलित कर दिया और वह दूसरी तरफ देखने लग गया। ‘द्रौपदी का अपमान एक क्षणिक भूल थी जो एक आवेश में हो गयी क्योंकि उसने मेरा तिरस्कार किया था। अगर मुझे एक अवसर मिलता तो द्रौपदी से क्षमा अवश्य मांगता।’ मुझे दुर्योधन से इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी पर सुनकर अच्छा लगा।
मेरा अगला प्रश्न था, ‘यहां विराटनगर के जंगलों में कैसे?’ उसने कहा, ‘ये जंगल अब भी उस काल का वर्णन करते हैं और शायद उस काल की अंतिम निशानी हैं, इसलिए।’
अब हम खाना खा चुके थे और होटल की चारपाइयों पर लेट गये। लेटे-लेटे उसने मुझसे बड़ा अजीब सा प्रश्न किया, ‘तुम क्या सोचते हो मैं क्यों हारा’?
‘सच कहूं तो इसलिए कि वह एक धर्मयुद्ध था और तुमने अधर्म किया, इसलिए कि कृष्ण उनके साथ थे और इसलिए कि अर्जुन और भीम तुम्हारे योद्धाओं से अधिक वीर थे’, एक रौ में बहकर मैंने कह तो दिया था पर तुरंत तुरंत ही लगा कि अब कुछ अप्रत्याशित होने वाला है और मैं सहम गया। दुर्योधन के माथे पर बल पड़ गए और मेरे माथे पर, डर की लकीरें। ‘सब कुछ इतना सरल नहीं था जितना तुम कह गए’ उसने कहा। मैंने ख़ामोश रहना ही बेहतर समझा।
‘अगर मैं अपराध बोध से ग्रसित हूं तो कहूंगा कि महाभारत का युद्ध एक धर्मयुद्ध था और मैं धर्म के विरुद्ध था। लेकिन कोई भी युद्ध धर्मयुद्ध नहीं होता। हां, धर्म की आड़ में लड़ा ज़रूर जाता है। युद्ध सिर्फ स्वार्थपूर्ति के लिए होते आए हैं और ये तीन स्वार्थ हैं: भूमि, स्त्री और संतान। महाभारत में ये तीनों ही कारण थे।’ एक राजा ही ऐसी बात कर सकता है, मैंने सोचा।
‘पर राज्य तुम्हारा तो नहीं था, पांडवों का था’, मैंने बात आगे बढ़ाई, ‘राज्य वीरों का होता है, जिनमें राजसी गुण होते हैं, उनका होता है। न कि त्याग और दया का भाव रखने वालों का। पांडव वीर थे, यह मैं भी मानता हूं पर उनमें राजसी गुण नहीं थे। त्याग और दया का कुछ ज्यादा ही अंश उनमें था। इस भाव के रहते राजा अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार नहीं कर सकता। चलो, मैं एक बार मान भी लूं कि मैं ग़लत था, पर क्या हस्तिनापुर का राज्य उनके हाथों में सुरक्षित रहता? वे हमेशा याचक ही रहे।’
मुझे उसकी यह बात तर्कपूर्ण लगी, लेकिन फिर भी कहा, ‘इंद्रप्रस्थ बनाने के बाद उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया तो था, फिर तुम कैसे कह सकते हो कि उनमें राज्य विस्तार की भावना नहीं थी?’
‘युधिष्ठिर को जुए की बुरी लत थी और मेरे निमंत्रण पर वह जुए में सबकुछ हार गया था। और तो और द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया। क्षत्रिय ऐसा नहीं करते। जो राजा अपनी पत्नी को दांव पर लगा दे तो क्या उसके राज्य में महिलाएं सुरक्षित रहेंगी? अगर उसमे संग्रहण की भावना होती तो वह हारा हुआ राज्य वापस लेने के लिए लड़ता न कि वनवास काटने चला जाता। राजा तो वह होता है जो, चाहे सही हो या ग़लत, सुई की नोंक के बराबर भी भूमि किसी को बिना लड़े नहीं देता और यही मैंने किया। मैं वीर था, मैं सुयोधन नहीं था जिसकी संपत्ति कोई भी आसानी से छीन लेता। मैंने युद्ध किया और बड़ी वीरता से किया।’ वह कुछ देर रुका, फिर बोला, ‘मैं दुर्योधन था’। मैँ सोचने पर मज़बूर हो गया कि द्रौपदी वाले प्रकरण में ग़लती किसकी थी।
‘दूसरा कारण तुम कृष्ण को मानते हो? कृष्ण तो सिर्फ एक रणनीतिकार था। कृष्ण ने तो कई युद्धों में पराजय पायी।उसका एक नाम ‘रणछोड़’ भी है। जरासंध से बचने के लिए मथुरा को छोड़कर द्वारका जा बसा था वो। सिर्फ कूटनीति की वजह से कोई युद्ध नहीं जीता जाता।’ मैंने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘अगर वह धर्मयुद्ध नहीं था तो कृष्ण क्यों पांडवों की तरफ से लड़े? वे तो तुम्हारे संबंधी थे, तुम्हारी बेटी, लक्ष्मणा की शादी तो कृष्ण के बेटे, सांब, से हुई थी।’
दुर्योधन बोला, ‘कृष्ण निष्पक्ष था परंतु अर्जुन ने पहले ही उससे पांडवों की तरफ से लड़ने का वचन ले लिया था।’
‘दुर्योधन, तुम अर्जुन और भीम को भूल गए क्या?’ भीम ने तो अकेले ही तुम्हारे सारे भाइयों का वध कर दिया था।’
‘अर्जुन वीर होकर भी संपूर्ण युद्ध में भ्रमित ही रहा। कभी तय ही नहीं कर पाया कि उसकी प्राथमिकता क्या है? हमेशा युद्ध का मुख्य मैदान छोड़कर वह शंसप्तकों से ही लड़ता रहा। अगर देखा जाए तो वह पांडवों का ‘द्रोणाचार्य’ था जिसने पुत्र की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडवों को लगभग हरा ही दिया था। कृष्ण के गीता ज्ञान के बाद भी वो भ्रमित रहा। मैं तो कभी भ्रमित नहीं रहा? और रही भीम की बात, वो वीर तो था पर अकेले ही महाभारत जीत ले, इतना बड़ा वीर नहीं था’ एक सांस में कह गया वह यह सब।
‘मेरे पास तो पांडवों की अपेक्षा बड़ी सेना थी। एक से एक महावीर थे - भीष्म, कर्ण, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा आदि जिन्होंने एक से एक बड़े युद्ध केवल अपने शौर्य और पराक्रम के बल पर जीते थे। फिर भी मैं हार गया। 
तुम्हें ज्ञात है, क्यों? नहीं है, तो सुनो। मेरे सारे योद्धा सिर्फ तन से मेरे साथ थे। मन और कर्म से नहीं और मैं उनके विश्वासघात के कारण हार गया। आओ, मेरे एक-एक सेनापति का आकलन बताता हूं।’
‘भीष्म पितामह आर्यावर्त के सबसे बड़े धनुर्धर। अर्जुन से भी बड़े। सारी उम्र वे शपथों के सहारे जीते रहे, सिंहासन से बंधे रहने की शपथ। अपने युद्ध में रहने तक कर्ण को युद्ध से दूर रखने की शपथ। फिर शिखंडी के सामने अस्त्र-शस्त्र न उठाने की शपथ। ज़रा सोचो तो युद्ध के 10 दिनों कर्ण, जो अर्जुन के समकक्ष वीर था, युद्ध से वंचित रहा। और तो और उन्होंने अपनी मृत्यु का भेद - शिखंडी - पांडवों को बता दिया। यह उनका विश्वासघात था। 
अगर भीष्म यह न करते तो पांडव किसी भी सूरत में युद्ध में नहीं जीत सकते थे। शिखण्डी के पीछे छुपकर अर्जुन वार करता रहा और पितामह खड़े रहे। मैं राजा होकर भी कुछ नहीं कर पाया। कोई भी शपथ युद्ध में जीतने की शपथ से बड़ी नहीं होती है। 
उनकी इतने वर्षों की सेवा के आगे मैं असहाय हो गया था और मैंने उनको सेनापति के पद पर रहने दिया। यह मेरी पहली भूल थी। उनके तीरों से मरने वालों का दुख पांडवों से ज्यादा तो उन्हीं को था। मेरा सबसे बड़ा सेनापति ही मेरे साथ नहीं था। उनके विश्वासघात और शपथों के कारण मैं हार गया।’
‘द्रोणाचार्य’ आर्यावर्त के सबसे बड़े शिक्षक, जिनको पितामह के बाद सेनापति बनाया, जिन्होंने कौरवों और पांडवों को समान युद्ध विद्या दी वे हमेशा ही अर्जुन के लिए अपने ह्रदय में एक ममता लिए रहे। उन्होंने अश्वत्थामा की मृत्यु की अफवाह मात्र से शस्त्र त्याग दिए और युद्ध के मैदान के बीचों बीच समाधि लगाकर बैठ गये और धृष्टद्युम्न ने बड़ी आसानी से उनको मार दिया। कहते हैं कि परशुराम ने 21 बार इस भूमि को क्षत्रिय-विहीन कर दिया था, उनको अपने प्रिय शिष्य कर्ण का भी मोह नहीं रहा और उस तक को श्राप दे डाला था। 
और मेरा सेनापति, एक ऐसा ब्राह्मण जो पुत्रमोह के जाल से बाहर ही नहीं निकल पाया और युद्ध क्षेत्र में ही धूनी लगाकर बैठ गया। क्या, सिर्फ पुत्र का जीवन ही युद्ध में महत्वपूर्ण होता है? सेनापति संपूर्ण सेना का नायक होता है। ऐसे सेनानायक के सहारे युद्ध में विजय की कल्पना करना मेरी मूर्खता थी। अगर द्रोणाचार्य पुत्र वियोग में शस्त्र न त्यागते तो मैं कभी नहीं हारता।
‘कर्ण अहा हा! मेरा सबसे अभिन्न मित्र! अर्जुन के समान वीर! बार-बार मेरे लिए पांडवों का नाश करने का संकल्प करने वाला! जिस पर मैंने भीष्म और द्रोण से भी ज्यादा विश्वास किया, उसने ही मेरे साथ सबसे बड़ा विश्वासघात किया। कुंती, अपनी मां, को सिर्फ अर्जुन को मारने का वचन देकर आ गया। मेरा मित्र होकर भी उसने मुझसे यह बात छुपाई! शायद, महाभारत में इससे बड़ा विश्वासघात का उदाहरण नहीं हो सकता। अरे, अन्य पांडवों को मारकर वह अर्जुन का मनोबल तोड़ सकता था जिससे अर्जुन की मृत्यु आसान हो जाती और मैं युद्ध जीत सकता था। क्या राजा सेनापति के विश्वासघात के बाद जीत सकता है? इतिहास चाहे कर्ण को कितना भी महान कहे, मेरी दृष्टि में वह एक विश्वासघाती था।’
‘शल्य - माद्री का भाई, नकुल-सहदेव का मामा। जिसने कर्ण का सारथ्य कम किया और उसको हतोत्साहित ज़्यादा किया। जो कर्ण की मृत्यु का कारण बना और फिर उसे ही सेनापति निुयक्त करके मैंने अपनी पराजय लगभग निश्चित कर ली। क्या शल्य को वीर की श्रेणी रखा जाना चाहिए? और क्या ऐसे व्यक्ति को प्रधान बनाना चाहिए?’
‘युद्ध में जीत और हार का निर्णय पहले योद्धा के मस्तिष्क में होता है। युद्ध क्षेत्र में तो उस निर्णय को जमीन पर उतारा जाता है। मेरे योद्धा तो पहले ही हार को परिणाम मान चुके थे तो फिर, तुम्हीं कहो, मैं युद्ध कैसे जीतता? मैं तो अकेला ही पांडवों से लड़ा था।’
अपनी बात कहकर वह चुप हो गया। मन हुआ कि मैं उसे कहूं कि तुम्हारी सारी बातें - कृष्ण के अलावा - शायद सही हैं पर, न जाने क्या सोचकर, चुप ही रहा। शाम हो चली थी उसने जाने की आज्ञा मांगी तो मैं शर्मिंदा हो गया। शायद वह मेरी मन:स्थिति भांप गया और जंगलों की तरफ चल दिया। जाते-जाते मैंने पूछा, ‘कहां जाओगे’? ‘पता नहीं’ और वह कहीं अंधेरे में विलीन हो गया।
‘सुनो, उठो, देखो, दिन चढ़ आया है, कब तक सोते रहोगे?’
सर भारी-भारी हो रहा था पर पहली बार मुझे दुर्योधन, दुर्योधन न लगकर सिर्फ एक राजा ही लगा था जो अपनी व्यथा कथा रात भर कहता रहा। अगर उसने छल-कपट किये तो उसके साथ भी हुए और अपने वीरों से ही बार-बार धोखा खाकर वह हार गया। और एक बात यह कि कृष्ण उसके साथ नहीं थे पर वह शायद कभी ‘कृष्ण’ का महत्व नहीं समझेगा। ‘कृष्ण’ कोई व्यक्ति नहीं हैं, वे एक चेतना हैं, ज्ञान हैं, विवेक हैं और जिसके पास ‘कृष्ण’ हैं, वह किसी भी ‘महाभारत’ में, किसी भी काल में नहीं हार सकता।
नहीं जानता कि मेरे मन में दुर्योधन के लिए अब क्या है? और, क्यों है? हां, एक बात ज़रूर तय है कि महाभारत को मैंने इस तरह से कभी नहीं समझा था।
दुर्योधन, मुझे अफ़सोस है, तुम हार गए!

समाप्त

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